संस्कृत में जिसे ‘गल्प’ अथवा ‘आख्यायिका’ कहा जाता है वस्तुतः हिंदी में वही ‘कहानी’ है किंतु इसकी गहराई में जाने पर स्पष्ट होता है कि वर्तमान कहानी भारत की पुरानी कहानियों से ही उपजी कहानी है किन्तु इसके संस्कार विदेशी हैं। इसका कारण है साहित्य की कोई भी विधा और उसकी कोई भी रचना हो वह अपने समय के समाज का सच होती है, यदि ऐसा नहीं होता तो वह रचना स्वत: ही खारिज हो जाती है या खारिज कर दी जाती है।
यहाँ यह जानना अनिवार्य है कि वस्तुतः कहानी क्या है? प्रेमचंद के अनुसार, “कहानी एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंश या मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली तथा कथा विन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं”। बाबू गुलाब रॉय के कथानुसार, “कहानी एक स्वत: पूर्ण रचना है जिसमें एक एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाली व्यक्ति केन्द्रित घटना या घटनाओं के आवश्यक, परन्तु कुछ-कुछ अप्रत्याशित ढंग से उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला कौतुहलपूर्ण वर्णन हो”।
इन उपर्युक्त कथनों से हम यह तो समझ सकते हैं कि कहानी क्या है अथवा उसको समझने के पास तक पहुँच सकते हैं किंतु हम किसी भी विधा को गणित एवं विज्ञान के सूत्रों एवं परिभाषाओं में नहीं बाँध सकते हाँ ! कहानी के अनुशासन को भली-भांति समझ सकते हैं। इस अनुशासन को समझ वह अनेक कहानीकार आये और अपना श्रेष्ठ देकर कहानी की विकास-यात्रा को शक्ति देकर अमर हो गये।
2010 ई० के बाद जिन लोगों ने इस विधा को विकास देने हेतु अपना श्रेष्ठ सृजन कार्य किया उनमें एक नाम अभिलाष दत्त भी है। अभी हाल में ही उनका प्रथम कहानी-संग्रह ‘पटना वाला प्यार’ प्रकाश में आया है जिसमें इनकी दस कहानियाँ हैं।
इनकी कहानियों के केंद्र में प्रायः इनका अपना जीवन प्रत्यक्ष होता है, इन्होंने अच्छा - बुरा जो कुछ भोग है अपने उन्हीं अनुभवों को केंद्र में रखकर कहानियों की रचना की है। यही कारण है कि कथाकार की प्रायः सभी कहानियों में और चाहे जो कमियाँ रह गयी हों किन्तु भाषा - शैली के स्तर पर उनकी समृद्धि को वह सिद्ध करती हैं। भाषा - शैली में सटीक शब्दों के उपयोग एवं शब्द - मैत्री के सुंदर तालमेल से भाषा प्रवाहमयी हो गयी, परिणामतः पाठक जब एक बार पढ़ना शुरू करेगा तो अंत से पूर्व रुकेगा नहीं, इतना ही नहीं इसका एक बड़ा कारण और भी है प्रत्येक कहानी में हर वाक्य आगे क्या होगा? परिणाम क्या हुआ? ऐसी उत्सुकता सहज ही जगाते चलता है जिससे हर कहानी ‘रस’ से सराबोर हो गयी और पाठक को आनंद भी देती चली गयी। वस्तुतः यह किसी भी श्रेष्ठ कहानी का एक अतिरिक्त गुण भी है।
अभिलाष की कहानियों की एक अन्य विशेषता उनमें उपजी संवेदनशीलता वो न मात्र पाठक को कहानी पढ़ने हेतु बाध्य करती है अपितु पाठक को भावनाओं से हृदय - तल तक भर देती है और कभी - कभी पाठक पढ़ते - पढ़ते इस सीमा तक संवेदित हो जाता है कि उसकी आँखें सजल हो उठती हैं। उदाहरण स्वरूप ‘चिट्ठी - दादाजी के नाम’ को पढ़ा जा सकता है।
‘पटना वाला प्यार’ में कहानीपन तो है ही उसके साथ - साथ पटना के विद्यार्थी जीवन का भी सुंदर चित्रण किया गया है। इस संदर्भ में कुछेक वाक्य देखे जा सकते हैं - “वो कहते हैं न कि सब्र का फल मीठा होता है। अगले दिन तुम आयी, हमें तो ऐसा लगा जैसे वर्षों की तपस्या फलित हो गयी हो। अब बारी तुमसे बात करने की सर को आने में अभी देरी थी, उतनी देर में हम कई बार जोड़, गुना, भाग करके जो तुमसे बोलना था उसका अभ्यास कर गये थे। लेकिन मेरे बोलने से पहले तुमने बोल दिया “क्या तुम्हारे पास दो पेन हैं ?”
इनकी कहानियों में संवाद भी बहुत सटीक है। सटीक इस अर्थ में कि वे पात्र को चरित्र एवं परिवेश के अनुसार उसकी विश्वसनीयता को स्वाभाविकता प्रदान करते हुए लिखे गये हैं। इस संदर्भ में ‘काश ! मैं तुम्हें रोक पाती’ के कुछ संवाद देखे जा सकते हैं -
“रोहन तुमनेनाज फिर 8-बी के लड़कों से मारपीट की? स्वाति ने रोहन से पूछा। “हाँ ! रोहन ने जवाब दिया।” “लेकिन क्यों?”
“क्योंकि वे लोग तुम्हें चिढ़ा रहे थे। तुम्हें मोटी और चसमिस बोल रहे थे तो मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उस ग्रुप के बॉस को दो - तीन थप्पड़ लगा दिए।”
“लेकिन तुम मेरे लिए उन लोगों से क्यों लड़े?” “ऐसे ही।”
इन संवादों की सहजता एवं स्वाभाविकता ही इन कहानियों को पठनीय बनाती है।
अभिलाष की कहानियों में आंतरिक और बाह्म संघर्ष भी स्थान - स्थान पर अपने पात्रों के माध्यम से तो कभी सीधे लेखक के ‘मैं’ के माध्यम से प्रत्यक्ष होता है। संघर्ष की अभिव्यक्ति यों तो प्रत्यक्ष करना कठिन कार्य है किंतु लेखक को इसमें भी सफलता मिली है। इस संघर्ष को ‘चिट्ठी - दादाजी के नाम’ में बखूबी देखा जा सकता है। इस कहानी के अतिरिक्त अभिलाष की श्रेष्ठ कहानियों में ‘लाल चच्चा’ , ‘फैसला’ , ‘अज्ञात आतंकवादी’ , ‘सुसाइड : जिम्मेदार कौन?’ ऐसी कहानियाँ है जिन्हें हम जीवन के वर्तमान में कदम - कदम पर देखते एवं महसूस करते हैं।
इनके अतिरिक्त ‘एक मुलाकात’ , ‘काश! मैं तुम्हें रोक पाती’ , ‘पटना वाला प्यार’ , ‘पटना वाला प्यार - 2’ , इत्यादि कहानियाँ थोड़ा भिन्न एवं विद्यार्थी जीवन को चित्रित करती है कहानियाँ हैं और ये भी अपने विषय के साथ पूरा - पूरा न्याय करती हैं।
इस संग्रह की सभी कहानियों से गुजरने के पश्चात ऐसा प्रतीत नहीं होता कि लेखक का यह पहला संग्रह है किंतु यह संग्रह यह संकेत भी अवश्य देता है कि लेखक को अभी और अधिक इस विधा में डूबना है तथा और अधिक मोती निकालने हैं, जो उसके लिए कठिन कार्य नहीं है, बस श्रम एवं लगन की जरूरत है।
(नोट :- उक्त समीक्षा बिहार - राष्ट्रभाषा -परिषद के शोध - त्रैमासिक पत्रिका “परिषद - पत्रिका” के सितंबर 2019 के अंक में प्रकाशित है)
समीक्षक:-
डॉ० सतीशराज पुष्करणा
अध्य्क्ष, (अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच)
महेन्द्रू पटना
पुस्तक इस लिंक से प्राप्त करें :
यहाँ यह जानना अनिवार्य है कि वस्तुतः कहानी क्या है? प्रेमचंद के अनुसार, “कहानी एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंश या मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली तथा कथा विन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं”। बाबू गुलाब रॉय के कथानुसार, “कहानी एक स्वत: पूर्ण रचना है जिसमें एक एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाली व्यक्ति केन्द्रित घटना या घटनाओं के आवश्यक, परन्तु कुछ-कुछ अप्रत्याशित ढंग से उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला कौतुहलपूर्ण वर्णन हो”।

इन उपर्युक्त कथनों से हम यह तो समझ सकते हैं कि कहानी क्या है अथवा उसको समझने के पास तक पहुँच सकते हैं किंतु हम किसी भी विधा को गणित एवं विज्ञान के सूत्रों एवं परिभाषाओं में नहीं बाँध सकते हाँ ! कहानी के अनुशासन को भली-भांति समझ सकते हैं। इस अनुशासन को समझ वह अनेक कहानीकार आये और अपना श्रेष्ठ देकर कहानी की विकास-यात्रा को शक्ति देकर अमर हो गये।
2010 ई० के बाद जिन लोगों ने इस विधा को विकास देने हेतु अपना श्रेष्ठ सृजन कार्य किया उनमें एक नाम अभिलाष दत्त भी है। अभी हाल में ही उनका प्रथम कहानी-संग्रह ‘पटना वाला प्यार’ प्रकाश में आया है जिसमें इनकी दस कहानियाँ हैं।
इनकी कहानियों के केंद्र में प्रायः इनका अपना जीवन प्रत्यक्ष होता है, इन्होंने अच्छा - बुरा जो कुछ भोग है अपने उन्हीं अनुभवों को केंद्र में रखकर कहानियों की रचना की है। यही कारण है कि कथाकार की प्रायः सभी कहानियों में और चाहे जो कमियाँ रह गयी हों किन्तु भाषा - शैली के स्तर पर उनकी समृद्धि को वह सिद्ध करती हैं। भाषा - शैली में सटीक शब्दों के उपयोग एवं शब्द - मैत्री के सुंदर तालमेल से भाषा प्रवाहमयी हो गयी, परिणामतः पाठक जब एक बार पढ़ना शुरू करेगा तो अंत से पूर्व रुकेगा नहीं, इतना ही नहीं इसका एक बड़ा कारण और भी है प्रत्येक कहानी में हर वाक्य आगे क्या होगा? परिणाम क्या हुआ? ऐसी उत्सुकता सहज ही जगाते चलता है जिससे हर कहानी ‘रस’ से सराबोर हो गयी और पाठक को आनंद भी देती चली गयी। वस्तुतः यह किसी भी श्रेष्ठ कहानी का एक अतिरिक्त गुण भी है।
अभिलाष की कहानियों की एक अन्य विशेषता उनमें उपजी संवेदनशीलता वो न मात्र पाठक को कहानी पढ़ने हेतु बाध्य करती है अपितु पाठक को भावनाओं से हृदय - तल तक भर देती है और कभी - कभी पाठक पढ़ते - पढ़ते इस सीमा तक संवेदित हो जाता है कि उसकी आँखें सजल हो उठती हैं। उदाहरण स्वरूप ‘चिट्ठी - दादाजी के नाम’ को पढ़ा जा सकता है।
‘पटना वाला प्यार’ में कहानीपन तो है ही उसके साथ - साथ पटना के विद्यार्थी जीवन का भी सुंदर चित्रण किया गया है। इस संदर्भ में कुछेक वाक्य देखे जा सकते हैं - “वो कहते हैं न कि सब्र का फल मीठा होता है। अगले दिन तुम आयी, हमें तो ऐसा लगा जैसे वर्षों की तपस्या फलित हो गयी हो। अब बारी तुमसे बात करने की सर को आने में अभी देरी थी, उतनी देर में हम कई बार जोड़, गुना, भाग करके जो तुमसे बोलना था उसका अभ्यास कर गये थे। लेकिन मेरे बोलने से पहले तुमने बोल दिया “क्या तुम्हारे पास दो पेन हैं ?”
इनकी कहानियों में संवाद भी बहुत सटीक है। सटीक इस अर्थ में कि वे पात्र को चरित्र एवं परिवेश के अनुसार उसकी विश्वसनीयता को स्वाभाविकता प्रदान करते हुए लिखे गये हैं। इस संदर्भ में ‘काश ! मैं तुम्हें रोक पाती’ के कुछ संवाद देखे जा सकते हैं -
“रोहन तुमनेनाज फिर 8-बी के लड़कों से मारपीट की? स्वाति ने रोहन से पूछा। “हाँ ! रोहन ने जवाब दिया।” “लेकिन क्यों?”
“क्योंकि वे लोग तुम्हें चिढ़ा रहे थे। तुम्हें मोटी और चसमिस बोल रहे थे तो मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उस ग्रुप के बॉस को दो - तीन थप्पड़ लगा दिए।”
“लेकिन तुम मेरे लिए उन लोगों से क्यों लड़े?” “ऐसे ही।”
इन संवादों की सहजता एवं स्वाभाविकता ही इन कहानियों को पठनीय बनाती है।
अभिलाष की कहानियों में आंतरिक और बाह्म संघर्ष भी स्थान - स्थान पर अपने पात्रों के माध्यम से तो कभी सीधे लेखक के ‘मैं’ के माध्यम से प्रत्यक्ष होता है। संघर्ष की अभिव्यक्ति यों तो प्रत्यक्ष करना कठिन कार्य है किंतु लेखक को इसमें भी सफलता मिली है। इस संघर्ष को ‘चिट्ठी - दादाजी के नाम’ में बखूबी देखा जा सकता है। इस कहानी के अतिरिक्त अभिलाष की श्रेष्ठ कहानियों में ‘लाल चच्चा’ , ‘फैसला’ , ‘अज्ञात आतंकवादी’ , ‘सुसाइड : जिम्मेदार कौन?’ ऐसी कहानियाँ है जिन्हें हम जीवन के वर्तमान में कदम - कदम पर देखते एवं महसूस करते हैं।
इनके अतिरिक्त ‘एक मुलाकात’ , ‘काश! मैं तुम्हें रोक पाती’ , ‘पटना वाला प्यार’ , ‘पटना वाला प्यार - 2’ , इत्यादि कहानियाँ थोड़ा भिन्न एवं विद्यार्थी जीवन को चित्रित करती है कहानियाँ हैं और ये भी अपने विषय के साथ पूरा - पूरा न्याय करती हैं।
इस संग्रह की सभी कहानियों से गुजरने के पश्चात ऐसा प्रतीत नहीं होता कि लेखक का यह पहला संग्रह है किंतु यह संग्रह यह संकेत भी अवश्य देता है कि लेखक को अभी और अधिक इस विधा में डूबना है तथा और अधिक मोती निकालने हैं, जो उसके लिए कठिन कार्य नहीं है, बस श्रम एवं लगन की जरूरत है।
(नोट :- उक्त समीक्षा बिहार - राष्ट्रभाषा -परिषद के शोध - त्रैमासिक पत्रिका “परिषद - पत्रिका” के सितंबर 2019 के अंक में प्रकाशित है)
समीक्षक:-
डॉ० सतीशराज पुष्करणा
अध्य्क्ष, (अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच)
महेन्द्रू पटना
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