फिल्म क्लास ऑफ 83 मुम्बई पुलिस की क्षमता को दिखाती है। की किस तरह अंडरवर्ल्ड और आंतकवादियों जैसे तमाम अपराधों से घीरी मुंबई को मुम्बई पुलिस ने आजाद करवाया। यह फ़िल्म क्राइम जर्नलिस्ट हुसैन जैदी 2019 में आई क्लास ऑफ 83 द पनिशर्स ऑफ मुम्बई पुलिस किताब पर आधारित है।
यह फिल्म का अभी आना एक विडम्बना ही है जब अभी के ताजा मामले सुशांत सिंह राजपूत की केस को मुंबई पुलिस से लेकर सीबीआई को दे दिया गया है। और इस मामले में मुंबई पुलिस के रवैये पे जिस तरह के सवाल उठ रहे हैं। उसे देखकर यह फिल्म देखना थोड़ा और रोचक हो जाता है। फिल्म की कहानी बिल्कुल आसान सी है एक योग्य पुलिस ऑफिसर विजय सिंह( बॉबी देओल) अंडरवर्ल्ड के खिलाफ शानदार काम कर रहा होता है लेकिन मुख्यमंत्री ( पाटकर) को ये नागवार गुजरता है क्योंकि उसके अंडरवर्ल्ड से सम्बन्ध होते जिससे पाटकर विजय को पनिशमेंट के तौर पर नाशिक के ट्रेनिंग स्कूल का अध्यक्ष बना दिया जाता है। वहाँ के पाँच सबसे कमजोर लड़को को विजय सिंह उन्हें अंडरवर्ल्ड को खत्म करने के लिए तैयार करता है। वे लड़के पाटकर के संरक्षण में रहने वाले शेट्टी और कलसिकर जैसे माफिया मो खत्म करते हैं।
रिव्यु
हमलोग पहले भी इस तरह की काफी फिल्मे देख चुके हैं जो मुम्बई में आतंकवाद गैंगस्टर पे बेस्ड रहे हैं इसलिए लेखक के पास कुछ नया नहीं है। लेकीन फिर भी हुसैन जैदी ने इसे अच्छे से उकेरा है। अभिजित देशपांडे ने पटकथा अच्छी लिखी है। सभी कैरेक्टर को सही तरीके से गढ़ा गया है। पटकथा लम्बी नहीं है कुछ ज्यादा मसाला डाला नहीं गया है बस कहानी सरल तरीके से आगे बढ़ती है। वापसी के बाद बॉबी देओल का ये मजबूत किरदार है। जिसमें वो शानदार तरह से नजर आते हैं उन्होंने ने एक छोर सम्भाले रखा है। और पांच नए कलाकार निनाद महाजनी (लक्ष्मण जाधव),भूपेंद्र जड़ावत (प्रमोद शुक्ला),पृथ्वीक प्रताप ( जनार्दन सुर्वे),हितेश भोजराज (विष्णु वर्दे) और समीर परांजपे ( असलम खान) जिन्होंने ने भविष्य में अपनी सम्भावनाएं बढ़ा दी हैं। काफी बेहतरीन काम किया फिल्म को बिलकुल भटकने नहीं दिया है। अनूप सोनी भ्रष्ट मुख्यमंत्री और ट्रेनर के रूप में विश्वजीत प्रधान अच्छा अदाकारी दिखाई है। निर्देशन काफी अच्छा रहा है अतुल सभरवाल नेे पुुुरेे कहानी को अच्छे से दिखाया है । कुछ जगह पर समय के अभाव में सिन जल्दी निकलता प्रतित होता है। क्योंकि फिल्म 2 घण्टे सेे भी कम है मगर उतने समय मेंं बहुत कुछ सजगता से दिखा दिया गया है। फिल्म के संवाद "कभी-कभी ऑर्डर बनाये रखने के लिए लॉ की बलि चढ़ानी पड़ती है" जैसे तमाम संवाद गढ़े गए हैं जो फिर से 70 और 80 के दशक की फिल्मों की याद दिलातीं हैं । जब डायलौग से फिल्में याद की जाती थी। इस फिल्म में रोमांस कुछ आइटम सॉन्ग जैसे गाने नहीं है। जैसा की पहले अंडरवर्ल्ड और क्राइम पे बनेे फिल्मों में देखने को मिला है। फिर भी येे फिल्म बोर नहींं होने देेती है। इसे 80 के दशक केे मुम्बई पुलिस को और उसके गौरवशाली इतिहास को जानने के लिये देख सकते हैं।
✍🏻 सूर्याकांत शर्मा
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