आज के समय मे हमारी जिंदगी से लगभग सर्कस समाप्त हो चुका है। आज के समय में हम मोबाईल फोन और टीवी ने बच्चों को अपनी ओर इतना आकर्षित कर लिया है। सर्कस जैसी चीजों की जगह नहीं पहले मेले ज्यादा लगते थे तो सर्कस भी लगते थे। सर्कस के कलाकारों की जिंदगी भी आर्थिक रूप से बहुत संघर्ष भरा होता है कुछ इसी तरह की कहानी बयां करती है ये फिल्म।
यह कहानी होती है रामसिंह (कुमुद मिश्रा) की जो एक सर्कस के कलाकार होते हैं। लेकिन आर्थिक तंगी के कारण सर्कस के मालिक सर्कस बन्द कर देते हैं। जिससे रामसिंह की आर्थिक स्तिथि खराब होने लगती है सर्कस के सारे कलाकार काम के तलाश में एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। रामसिंह के ऊपर गर्भवती पत्नी(दिव्या दत्ता) और एक बच्चे की जिम्मेदारी होती है। रामसिंह रोजी रोटी चलाने के लिए हाँथ से खींचने वाला रिक्शा चलता है। लेकिन उससे तीनों का पेट चलना मुश्किल होता है। इसलिए वो अपनी पत्नी को गांव भेज देता है। फिर वो खुद का सर्कस खोलने का सोचता है। लेकिन क्या वो अपनी आर्थिक तंगी से उपर आकर सर्कस खोल पाएगा? इसे जानने के लिए फ़िल्म देखना होगा।
रिव्यु
कुमुद मिश्रा ने अपने संघर्ष पूर्ण के किरदार को सहजता से निभाया है। कुमुद शुरू से लेकर फ़िल्म के आखिर तक अपने आपको भटकने नहीं दिया है। वही दिव्या दत्ता भी अपनी अभिनय से मन मोह लेतीं हैं। दिव्या जिस तरह से कुमुद मिश्रा की संघर्ष और बेबसी को देखती है ।उनके चेहरे पे वह भाव साफ झलकता है। वह सीन मन को भावुक कर देगा उन लोगों के बारे में सोचने पे मजबूर कर देगा जो इस तरह की हालातों का रोज सामना करते हैं। दिव्या दत्ता को पहले भी हमने भाग मिल्खा भाग, बदलापुर जैसे तमाम फिल्मों में देख चुके हैं। फारुख सेयर जो रामसिंह के दोस्त का किरदार में दिखे हैं उन्होंने ने भी फ़िल्म को एक छोर से सम्भाले रखा है। अकार्ष खुराना ने भी अच्छी तरह से अपनी किरदार को निभाया है हालांकि उनका किरदार ज्यादा लम्बा नहीं है लेकिन उन्होंने ने प्रभावित किया है। मास्टरजी (सलीमा रजा) ने भी मास्टर जी के किरदार को सहजता से निभाया है। नितिन ककड़ और साबिर हाशमी ने इसे अच्छे से गढ़ा है। नितिन ककड़ ने डायरेक्शन से प्रभावित किया है। नितिन की खासियत रही है कि वो अपने फिल्मों में हर बार कुछ नया डालने की कोशिश करते और वो इस बार भी इसे करने में कामयाब हुए हैं। वहीं सिनेमाटोग्राफी की भी तारीफ करनी होगी जिस तरह से हर छोटे से छोटे चीजों को संजोया है वो फिल्म को पल भर के लिये भी आँखों से ओझल नहीं होने देती हैं। फिल्म में ज्यादा गाने नहीं हैं मगर फिल्म का एक गाना - "जीने को क्या हो बस थोड़े से इरादे हो" ये सांग फिल्म को बिल्कुल ध्यान में रखकर लिखी गई है ये गाना फिल्म को दर्शाता है। इसके लिए रविन्द्र रंधावा की तारीफ करनी होगी।
✍🏻 सूर्याकांत शर्मा
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