सब कुछ से ऊब जाता हूँ और मन होता है कि कुछ अच्छा सुना जाए तो राहत साहब को सुनता हूँ. किसी रोज नींद नहीं आती और अगर शायरी सुनता हूँ तो राहत साहब को जरूर सुन लेता हूँ. और 1-2 बजे रात में स्टेटस में लिख दिया करता हूँ रात के 1 बज रहा है और मैं राहत साहब को सुन रहा हूँ और ये मेरे लिए सुखद है. किसी को शब्द से जवाब देना होता है जब खुद से नहीं लिख पाता हूँ तो अधिकतर बात इनका लिखा हुआ लिख देता हूँ. इनको सुनते हुए हमेशा लगा जैसे ये मुझसे बातचीत कर रहे हो और मेरे अंदर की बात को ही दुनिया को सुना रहे हो.
आज शाम एकाएक खबर आई राहत साहब नहीं रहे.. विश्वास नहीं हुआ, विश्वास इसलिए भी नहीं हुआ क्योंकि मेरी नजर इनके बीमार होने वाली बात पर भी नहीं गई थी. उसके बाद इनके फेसबुक पेज को देखने लगे. हिंदुस्तान से इस आदमी को कितना प्यार था उसके लिए ज्यादा पीछे नहीं जाऊंगा. बस दो दिन पहले एक पुराने बातचीत का वीडियो इन्होंने शेयर किया था. जिसमे सामने वाला सवाल करता है विश्व में हिंदुस्तान के अलावा आपका फेवरेट देश कौन सा है ? तो राहत साहब ने कहा हिंदुस्तान के सिवा कोई और नहीं.
"मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना"
एक तरफ राहत साहब कहते थे.. " वबा फैली हुई है हर तरफ़, अभी मौसम मर जाने का नई है" तो फिर यह भी कहते है. "ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था, मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था". इसलिए बचना नहीं मरना ही मुनासिब समझा. खुद ही कहते थे वो बुलाती है मगर जाने का नई.. और खुद ही मौत के बुलावे पर चले गए.
हिंदी और उर्दू कवि सम्मेलनों के जान, मंच के दुलारे कवि आज चले गए. फिर कभी कोई बेपरवाह जुल्फें, चेहरे पर एक अलग ही हँसी लिए, कविता/गजल/शायरी को जीवंत करके सुनाता ऐसा व्यक्ति देखने को नहीं मिलेगा.
एक तरफ़ इनके मृत्यु का दुख है तो मन में गुस्सा भी है. चंद लोग मौत को मनोरंजन और तमाशा बना दिए है. यह खेल वैसे तो बहुत पहले से चलते आ रहा है. लेकिन अब यह अत्यधिक हो गया है. मरने वाले के लिए दुआ होना चाहिए, उनके परिवार के लिए संवेदना होना चाहिए. लेकिन यहाँ नफरतों का बाजार प्रेम के दुकान से ज्यादा फैल गया है. कोई धर्म के हिसाब से मौत पर उत्सव मनाता है तो कोई विचारधारा को देख कर. किसी के मौत पर ऐसा घटियापन कोई धर्म नहीं सिखाता. और शायद कोई विचारधारा भी नहीं सिखाता. ऐसे लोगों का विरोध होना चाहिए.
राहत इंदौरी प्रेम के कवि थे. तभी तो कहते थे.. "जनाज़े पर मेरे लिख देना यारों, मोहब्बत करने वाला जा रहा है". जो मौत को भी खुशनसीबी ही समझते थे तभी तो फक्र से कह गए.. "दो गज ही सही मेरी मिलकियत तो है, ए मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया".
आपसे मिलना था. पर यह हो नहीं पाया. पर आपके लिखे को पढ़ते रहेंगे, आपके बोल को सुनते रहेंगे. प्रिय कवि आप हमेशा याद आवोगे.और लिखने बोलने वाले मरते कहा है.आपके मौत पर जश्न मनाने वाले को एकबार उठ कर कहिए गरजते हुए. "अभी गनीमत है सब्र मेरा अभी लबालब भरा नहीं हूँ, वह मुझे मुर्दा समझ रहा है उसे कहो अभी मरा नहीं हूँ"
श्रद्धांजलि.. हरि ॐ शांति
✍️सिंह आदर्श
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
अपना सुझाव यहाँ लिखे